Friday, July 7, 2017

पश्चिम बंगाल: तुष्टिकरण, साम्प्रदायिकता और अराजकता

Youth Ki Awaaz पर प्रथम प्रकाशित 

पश्चिम बंगाल एक बार फिर ख़बरों के घेरे में है। कारण एक बार फिर साम्प्रदायिक हिंसा है। पश्चिम बंगाल में साम्प्रदायिक हिंसा पहली बार नहीं हुई है। भारत विभाजन पूर्व, १६ अगस्त १९४६ के दिन जिन्नाह द्वारा डायरेक्ट एक्शन डे घोषित किया गया था। उस कत्लेआम में सैंकड़ो लोग मारे गए थे।भारत की आज़ादी के बाद भी हिंसा का दौर चलता रहा। मुर्शिदाबाद में १९८८ में एक मस्जिद में प्रार्थना के
चित्र आभार: Youth Ki Awaaz
अधिकार को लेकर 
पश्चिम बंगाल मुस्लिम लीग ने कासिम्बाज़ार में हिंसक प्रदर्शन किया. प्रदर्शन कारियों ने बंगाल के पाकिस्तान में विलय के भी नारे लगाए. पर इतिहास को दोहरा कर हम आज की उपेक्षा नहीं कर सकते। 

वर्तमान पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों ने सत्तर के दशक में क्रान्ति के नाम पर सशस्त्र गिरोहों का गठन किया. उन्ही गिरोहों ने वाम दलों को तीन दशकों तक सत्ता में बनाये रखा. आज वही गिरोह जिहने काडर भी कहा जाता है, वर्तमान तृणमूल सरकार का सहयोग कर रहे है. 

पश्चिम बंगाल में पनप रही हिंसा की एक जड़ बंगलदेश तक जाती है. वहां के कट्टरवादी संगठन, जैसे जमात - ए - इस्लामी, बांग्लादेश को एक इस्लामिक देश बनाना चाहते हैं. २००९ में शेख हसीना के पद सँभालने के बाद वहां इस्लामी कट्टरवाद पर निहाना साधा गया और आतंकी संगठनों का दमन किया गया. नतीजा यह हुआ की बांग्लादेशी कट्टरवाद सीमा लांघ कर पश्चिम बंगाल आ पहुंचा. 

ममता बनर्जी की तुष्टिकरण की नीति और बांग्लादेश से कट्टरवाद और अवैध घुसपैठ का नतीजा आज यह है की बंगाल के कम से कम तीन जिलों में प्रशासन अपना नियंत्रण खो चूका है. अफीम की खेती हो या आतंकी घुसपैठ, इन जिलों में सब खुलेआम हो रहा है. मुर्शिदाबाद, मालदा और उत्तर २४ परगना, तीन ऐसे जिले हैं जहाँ पिछले सात वर्षों में व्यापक साम्प्रदायिक हिंसा हुई है. 

वोट की राजनीति और तुष्टिकरण के चलते बंगाल में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ रहा है. इमामों को दिए जाने वाला मासिक भत्ता हो या स्थानीय मीडिया पर सांप्रदायिक हिंसा के प्रसारण पर रोक हो, बंगाल सरकार इस्लामिक तुष्टिकरण को खुलेआम प्रोत्साहन दे रही है. जहाँ वामपंथी पूँजीवाद विरोध की आड़ में हिंसा फैलाते थे वहीँ ममता सरकार इस्लामी हिंसा की और आँखे मूंदी बैठी है. 

हिंसा और सांप्रदायिक तनाव तृणमूल सरकार का हथियार बन चुके है. अवैध हथियारों और विस्फोटकों का पकड़ा जाना या लगातार हो रहे देसी बेम विस्फोट हो, यह सरकार की अक्षमता या विध्वंसकारी ताकतों से सांठ गांठ का प्रतीक है। प्रेस पर सरकार का कड़ा नियंत्रण इस लेख से आँका जासकता है. मिडिया द्वारा हिंसा के समाचार प्रसारित करने पर उनके खिलाफ पुलिस में प्राथमिकी दर्ज़ कर दी जाती है. 

इस सप्ताह बशीरहाट में हुए साम्प्रदायिक दंगे भी देश की नज़र में नहीं आते अगर सोशल मीडिया पर स्थानीय लोगों ने तस्वीरें और वीडियो नहीं डाले होते। आखिर क्या चाहतीं हैं ममता बनर्जी? क्या देश में साम्प्रदायिकता से जूझ रहा एक राज्य, कश्मीर, काफी नहीं है? क्या बंगाल को भी वोट की राजनीति के वेदी पर कुर्बान कर दिया जायेगा? क्या मालदा की तरह बंगाल के बाकि हिस्सों में भी इस्लामी कट्टरवाद सर चढ़ कर बोलेगा? इसका जवाब शायद ममता बनर्जी के पास ही है. परन्तु राजनितिक दल तो सत्ता की धुन में अंधे हो जाते है. 

शायद हमें अपने बुद्धिजीवी वर्ग से उम्मीद लगनी चाहिए. बुद्धिजीवी जो फिलिस्तीन से लेकर परमाणु बिजलीघरों तक पर प्रदर्शन करने से नहीं कतराते, क्या वह बंगाल में हो रही कट्टरवादी हिंसा के खिलाफ प्रदर्शन करेंगे? यहाँ आश्चर्य यह है की बुद्धिजीवी वर्ग को हिंसा नहीं दिखाई देती. दिखाई देता है तो केवल राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच चल रहा पत्राचार. 

हमारा संविधान सभी नागरिकों को सामान अधिकार देता है. फिर क्यों एक और भारत "लीनचिस्तान" बन जाता है पर वही दूसरी ओर उतनी हे वीभत्स हिंसा को केवल क़ानून व्यवस्था का मामला बताकर हम किनारा कर लेते हैं?